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Wednesday, December 25, 2024

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Anant Chaturdashi 2024: अनंत चतुर्दशी व्रत के हैं अनंत लाभ, श्रीकृष्ण ने स्वयं बताई है इस व्रत


Anant Chaturdashi 2024: अनंत चतुर्दशी का पर्व भविष्य पुराण (Bhavishya Purana) (उत्तर पर्व अध्याय क्रमांक 94) में वर्णित है. इस पर्व के बारे में भगवान कृष्ण (Lord Krishna) महाराज युधिष्ठिर को बताते हैं. सम्पूर्ण पापों का नाशक, कल्याणकारक और सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला अनंत चतुर्दशी नामक एक व्रत है, जिसे भाद्रपद मास के शुक्ल पक्षकी चतुर्दशी को किया जाता है.

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताई अनंत व्रत की महत्ता

श्री कृष्ण कहते हैं- अनंत उनका ही नाम है. अनंत चतुर्दशी के संबंध में एक प्राचीन आख्यान है, उसे आप सुनें. कृतयुग में वसिष्ठगोत्री सुमंतु नाम के एक ब्राह्मण थे. उनका महर्षि भृगु की कन्या दीक्षा से वेदोक्त-विधि से विवाह हुआ. उन्हें सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम शीला रखा गया. कुछ समय बाद उसकी माता दीक्षा का देहांत हो गया और उस पतिव्रता को स्वर्गलोक प्राप्त हुआ. सुमंतु ने पुनः एक कर्कशा नाम की कन्या से विवाह कर लिया. वह अपने कर्कशा नाम के समान ही दुःशील और कर्कश थी.

शीला अपने पिता के घर में रहती हुई दीवार, देहली और स्तम्भ आदि में मांगलिक स्वस्तिक, पद्म, शङ्ख आदि विष्णु चिह्नों को अंकित कर उनकी अर्चना करती रहती. सुमंतु को शीला के विवाह की चिंता होने लगी. उन्होंने शीला का विवाह कौंडिन्य मुनि के साथ कर दिया.

कौंडिन्य जी भी विवाह के उपरांत शीला को साथ लेकर बैलगाड़ी से धीरे-धीरे वहां से चल पड़े. दोपहर का समय हो गया. वे एक नदी के किनारे पहुंचे. शीला ने देखा कि शुभ वस्त्रों को पहने हुए कुछ स्त्रियां चतुर्दशी के दिन भक्तिपूर्वक जनार्दन की अलग-अलग पूजा कर रही हैं. शीला ने उन स्त्रियों के पास जाकर पूछा- ‘देवियो! आप लोग यहां किसकी पूजा कर रही हैं, इस व्रत का क्या नाम है.’

अनंत चतुर्दशी व्रत-पूजन विधि

इस पर वे स्त्रियां बोलीं- ‘यह व्रत अनंत चतुर्दशी नाम से प्रसिद्ध है.’ शीला बोली- ‘मैं भी इस व्रत को करूंगी, इस व्रत का क्या विधान है, किस देवता की इसमें पूजा की जाती है और दान में क्या दिया जाता है, इसे आप लोग बताएं.’ इसपर स्त्रियों ने कहा- ‘शीले! प्रस्थभर पक्वान्न का नैवेद्य बनाकर नदी तट पर जाय, वहां स्नान कर एक मंडल में अनंत स्वरूप भगवान विष्णु (Lord Vishnu) की गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से पूजा करें और कथा सुनें. उन्हें नैवेद्य अर्पित करें.

नैवेद्य का आधा भाग ब्राह्मण को निवेदित कर आधा भाग प्रसाद रूप में ग्रहण करने के लिए रखे. भगवान अनंत के सामने चौदह ग्रन्थियुक्त एक दोरक (डोरा) स्थापित कर उसे कुंकुमादि से चर्चित करें।. भगवान को वह दोरक निवेदित करके पुरुष दाहिने हाथ में और स्त्री बायें हाथ में बांध लें.

दोरक-बन्धन (अनंत बांधने) का मंत्र इस प्रकार है (Anant Sutra Tying Mantra)-

अनन्तसंसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव।
अनन्तरूपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते ॥

(भविष्य पुराण उत्तरपर्व 94.33) ‘हे वासुदेव ! अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में मैं डूब रही हूं, आप मेरा उद्धार करें, साथ ही अपने अनंत स्वरूप में मुझे भी आप विनियुक्त कर लें. हे अनन्त स्वरूप! आपको मेरा बार-बार प्रणाम है.’

दोरक बांधने के बाद ही नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए. अन्त में विश्वरूपी अनन्तदेव भगवान नारायण का ध्यान कर अपने घर जाएं. शीले! हमने इस अनंत व्रत का वर्णन किया. इसके बाद शीला ने भी विधि से इस व्रत का अनुष्ठान किया और हाथ में दोरक (अनंत सूत्र) भी बांधा. उसी समय शीला के पति कौंडिन्य भी वहां आएं. फिर वे दोनों बैलगाड़ी से अपने घर की ओर चल पड़े. घर पहुंचते ही व्रत के प्रभाव से उनका घर प्रचुर धन-धान्य एवं गोधन से सम्पन्न हो गया. वह शीला भी मणि-मुक्ता तथा स्वर्णादि के हारों और वस्त्रों से सुशोभित हो गई, वह साक्षात् सावित्री के समान दिखाई देने लगी.

कुछ समय बाद एक दिन शीला के हाथ में बंधे अनंत दोरक को उसके पति ने क्रुद्ध हो तोड़ दिया. उस विपरीत कर्मविपाक से उनकी सारी लक्ष्मी नष्ट हो गई, गोधन आदि चोरों ने चुरा लिया. सभी कुछ नष्ट हो गया. आपस में कलह होने लगा. मित्रों ने सम्बन्ध तोड़ लिया. अनंत भगवान के तिरस्कार करने से उनके घर में दरिद्रता का साम्राज्य छा गया. दुखी होकर कौंडिन्य एक गहन वन में चले गये और विचार करने लगे कि मुझे कब अनंत भगवान के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा.

उन्होंने पुनः निराहार रहकर तथा ब्रह्मचर्य-पूर्वक भगवान अनंत का व्रत एवं उनके नामों का जप किया और उनके दर्शन की लालसा से विह्वल होकर वे पुनः दूसरे निर्जन वन में गए. कुछ ही समय के पश्चात कौंडिन्य मुनि के सामने कृपा करके भगवान अनंत वृद्ध ब्राह्मण के रूप में प्रकट हो गये और पुनः उन्हें अपने दिव्य चतुर्भुज विश्वरूप का दर्शन कराया. भगवान्‌ का दर्शनकर कौंडिन्य अत्यन्त प्रसन्न हो गए और उनकी प्रार्थना करने लगे तथा अपने अपराधों के लिये क्षमा मांगने लगे (पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः । पाहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरो भव ॥ अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम्।[भविष्य पुराण उत्तरपर्व 94.60-61])

भगवान बोले “अब तुम अपने घर जाकर अनंत-व्रत करो, तब मैं तुम्हें उत्तम नक्षत्र का पद प्रदान करूंगा. तुम स्वयं संसार में पुत्र-पौत्रों एवं सुख को प्राप्तकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करोगे.” ऐसा वर देकर भगवान अन्तर्धान हो गए.

कौंडिन्य ने भी घर आकर भक्ति–पूर्वक अनंत व्रत का पालन किया और अपनी पत्नी शीला के साथ वे धर्मात्मा उत्तम सुख प्राप्तकर अन्त में स्वर्ग में पुनर्वसु नामक नक्षत्र के  रूप में प्रतिष्ठित हुए. जो व्यक्ति इस व्रत को करता है या इस कथा को सुनता है, वह भी भगवान के स्वरूप में मिल जाता है.

ये भी पढ़ें: Ganpati Visarjan 2024: बड़े गणपति का विसर्जन अनंत चतुर्दशी को क्यों होता है?
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.



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