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Monday, December 23, 2024

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मंदिर-मस्जिद विवाद पर मोहन भागवत का कहना क्या मान लेंगे हिंदू? चुनौतियां कई हैं । Opinion


आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गुरुवार को एक कार्यक्रम में बोलते हुए देश में सद्भावना की वकालत की और मंदिर-मस्जिद को लेकर शुरू हुए नए विवादों पर नाराजगी जाहिर की है. इस बयान का मतलब सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश में संभल और राजस्थान में अजमेर शरीफ में मंदिर होने के दावे जैसे विवाद के अचानक बढने से लिया जा रहा है. भागवत ने यह भी कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बाद ऐसे विवादों को उठाकर कुछ लोगों को लगता है कि वे ‘हिंदुओं के नेता’ बन जाएंगे. कहा जा रहा है कि यह तंज उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर किया है. जो आजकल उत्तर प्रदेश में हिंदू मंदिरों को लेकर कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिख रहे हैं. हालांकि मोहन भागवत जो कह रहे हैं उससे इनकार नहीं किया जा सकता. यही कारण है कि विपक्ष के कुछ नेताओं ने आगे बढ़कर उनकी बात का समर्थन भी किया है. पर सवाल उठता है कि बीजेपी से कितने लोग उनके समर्थन में आए आए हैं? विश्‍व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे RSS के अनुषांगिक संगठन क्या भागवत की बात मानेंगे?

सवाल यह भी उठता है कि भागवत जो कह रहे हैं उसके लिए वो किस हद तक आगे आ्एंगे? क्योंकि बयान देना अलग बात है , और उस बयान को धरातल पर उतारने के लिए पहल करना अलग बात है. क्योंकि अगर आरएसएस चाह ले तो भारतीय जनता पार्टी का कौन सा शख्स है, जो संघ की इच्छा के विपरीत हिंदुओं का नेता बनने की कोशिश करेगा? पर आरएसएस को जो अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पता है कि यह संगठन हमेशा से ऐसी बातें करता रहा है. कोई जरूरी नहीं है कि आरएसएस की इस तरह की हर बात को बीजेपी और अन्य संबंधित संगठन उनकी बात को तवज्जो दें. इसके पहले भी कई बार भागवत ये बात बोल चुके हैं राम मंदिर के बाद हर मस्जिद के नीचे मंदिर नहीं ढूंढना चाहिए. पर उनकी बातों को कितना सुना गया? उदाहरण सामने है कि अगर भागवत की बातों का जरा भी लिहाज होता तो जगह  जगह बीजेपी नेता मस्जिदों में मंदिर ढूंढते नजर नहीं आते. दूसरी तरफ भागवत की बातों का कई बार भारतीय जनता पार्टी को खमियाजा भी भुगतना पड़ा है. याद करिए जब 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों के पहले आरक्षण पर बोलकर उन्होंने बीजेपी का काम खराब कर दिया था. इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोहन भागवत जो कहते हैं वो सही है तो होता है पर चुनौतियां इतनी होती हैं वो आदर्श ही बनकर रह जातीं हैं. 

1-योगी आदित्यनाथ और संघ प्रमुख

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संभल विवाद को लेकर जिस तरह विधानसभा में भाषण दिया उसे देखते हुए यह समझ में आ गया कि वे इस मुद्दे को यूं ही नहीं छोड़ने वाले हैं. पर इस बीच देखने में यह भी आया कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व संभल हिंसा और उसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार के एक्शन को लेकर घोर चुप्पी साधे हुए है. जाहिर है कि यह साफ नजर आ रहा है कि संभल की पिच पर योगी अदित्यनाथ खुल कर खेल रहे हैं. पर योगी और संघ प्रमुख के बीच जो संबंध रहे हैं उन्हें देखते हुए कोई नहीं कह सकता कि भागवत का बयान यूपी सीएम पर तंज था. क्योंकि योगी आदित्यनाथ को सीएम बनाने से लेकर अभी उत्तर प्रदेश में उपचुनावों तक योगी की कुर्सी को आरएसएस का आशीर्वाद प्राप्त रहा है. योगी के ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे को भी संघ ने समर्थन दिया. अचानक योगी को ध्यान में रखकर संघ प्रमुख ने कुछ कहा होगा, इस पर जल्दी विश्वास नहीं होता. पर राजनीति अनंत संभावनाओं का खेल है. इसलिए क्या हो सकता है ये कोई नहीं जानता है. फिलहाल तो ऐसा लगता है कि घर का गार्जियन अपने बच्चे की गलती को लेकर प्राइड भी फील कर रहा है और एक अनजाने डर से चेता भी रहा है. क्योंकि संघ भी जानता है कि इस समय बीजेपी को योगी की तरह का फायर ब्रांड लीडर ही बचा पाएगा.  

2-बीजेपी और अन्य संगठन कितना मानेंगे संघ प्रमुख की बात 

योगी आदित्यनाथ कभी संघ से जुड़े नहीं रहे हैं, इसलिए माना जा सकता है कि वो भागवत की बातों को हल्के में ले सकते हैं. पर भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन भी क्या मोहन भागवत की बातों को तवज्जो देंगे, इसमें संदेह है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि बीजेपी आरएसएस के दिशा निर्देशों पर चलती रही है. पर कई बार ऐसा देखने में आया है कि बीजेपी और आरएसएस के रास्ते एकदम से अलग हो गए. बीजेपी जब जब कोई कद्दावर नेतृत्व आता है तो यह दूरी और बढ़ जाती रही है. अटल बिहारी वाजपेयी और नरेद्र मोदी इसके मिसाल हैं. 2024 के चुनावों में जेपी नड्डा ने तो यहां तक कब दिया था कि अब हमें आरएसएस की जरूरत नहीं है, हम खुद सक्षम हैं. इसके बाद जो हुआ उसे पूरे देश ने देखा. 

दरअसल आरएसएस को चुनाव नहीं लड़ना होता है. इसलिए उसकी कई बातें आदर्श के उच्चतम स्तर पर होती हैं. पर बीजेपी को चुनाव मैदान में उतरना होता है. चुनाव जीतने के लिए तमाम तरकीब भिड़ानी पड़ती है. साम -दाम -दंड -भेद सबका इस्तेमाल करना होता है. लगभग एक दशक पहले, 2015 के बिहार चुनावों के दौरान, जब आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने 1981 की लाइन अपनाई और “गैर-पक्षपातपूर्ण पर्यवेक्षकों” के एक पैनल द्वारा आरक्षण की समीक्षा का आह्वान किया, तो इसे भाजपा के चुनावी हार का कारण मान लिया गया.दो चरणों का मतदान ख़त्म हो चुका था तीन चरण आने बाकी थे.  भागवत ने तुरंत अपनी राह सुधारी और आरएसएस प्रमुख के पारंपरिक विजयादशमी संबोधन में अंबेडकर की प्रशंसा की. उन्होंने अपना भाषण ‘हिंदू-हिंदू एक रहें, भेद-भाव को नहीं सहें’ के नारे के साथ समाप्त किया. पर तब तक खेला हो चुका था. 

3- क्या संघ सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है

एक सवाल और उठता है कि क्या संघ देश के सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है. इसका जवाब भी बहुत पेचीदा है. पहली बात तो यह है कि हिंदू धर्म अन्य धर्म जैसे मुस्लिम और ईसाई की तरह कोई एक सेक्ट नहीं है.यहां बहुत से सेक्ट हैं और सभी में इतने बड़े अंतर हैं कि बाहर वाला चकरा जाए. दूसरी बात यह भी है कि संघ के अलावा भी हिंदू धर्म के बड़े झंडाबरदार हैं. जैसे योगी आदित्यनाथ के गुरू मंहत अवैद्यनाथ, दिग्विजयन नाथ आदि हिंदू महासभा से जुड़े रहे हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना बनाकर बाला साहब ठाकरे ने खुद को हिंदू हृदय सम्राट का दर्जा हासिल किया. यहा्ं तक कैबिनेट मिशन के सामने हिंदुओं के रिप्रजेंटशन के लिए जिन्ना का कहना था कि कांग्रेस की बजाए विनायक दामोदर सावरकर से बात होनी चाहिए. मतलब साफ है कि आरएसएस की बात को देश के सभी हिंदू कितना तवज्जो देंगे इस पर एकमत नहीं हुआ जा सकता.

4- देश के कई अलग-अलग शहरों में उठ रहे हैं मंदिर मस्जिद विवाद

अयोध्या में मंदिर बनने के बाद देश भर के दर्जनों शहरों से ऐसा खबरें आ रही हैं कि यहां मस्जिद के नीचे मंदिर कभी रहा है. हर शहर की तासीर अलग अलग है.कई शहरों में लोकल नेतृत्व उभर रहा है. उत्तर प्रदेश ही नहीं मध्य प्रदेश और राजस्थान में अगर बीजेपी अपना स्टैंड बदलती है और आरएसएस की बात में आकर लिबरल होने की कोशिश करती है तो उसे भयंकर नुकसान उठाना पड़ सकता है. योगी आदित्यनाथ ने आज शुक्रवार को जिस तरह की बातें की हैं उससे लगता है कि वो भी भागवत के स्टैंड से सहमत नहीं है.

5-क्या मुस्लिम इस बात कों मानेंगे कि आक्रांताओं ने जो किया वो गलत किया 

दरअसल मोहन भागवत की शांति की बात कर रहे हैं. यह जरूरी भी है कि देश एक बार फिर मंदिर मस्जिद का विवाद नहीं चाहता है. देश को 1947 तक अगर विकसित देश बनाना है तो देश की 25 परसेंट आबादी से विवाद करके लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता. पर सवाल यह है कि अगर हिंदू यह मान भी लें कि अब वे किसी भी मंदिर की बात नहीं उठाएंगे तो क्या मुस्लिम यह मानेंगे कि जो आक्रांताओं ने किया वो गलत किया. दक्षिण अफ्रीका की शांति से भारत को सबक सीखना चाहिए. वहां अंग्रेजों ने मान लिया कि उनके पूर्वजों ने जो अत्याचार किए वो गलत थे. आज गोरे और काले दोनों मिलकर एक साथ शांति से रह रहे हैं.



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